Monday, August 27, 2007

कामिनी कांचन

हर एक नारी अपनीही माँ का अलग अलग रूप होता है और हर माँ साक्षात् जगत्जननी का रुप है। परस्त्री को देखते समय अपने अन्दर मातृत्व की भावना जागनी चाहिऐ। अगर ऐसा नही हो सका तो परस्त्री को छुना तो दूर उसकी तरफ दूषित नजर से देखना भी हमारे विनाश का कारण बन सकता है।

दुनिया मे मनुष्य को जो दूःख मिलते है, बहुतांश दूःख 'कामिनी कांचन' कि लालसा से उत्पन्न होते है। अगर आपको जीवन मे सफल बनना है, तो आप को इन दो चिजोसे बहुत दूर रहना पड़ेगा। भगवान श्री रामकृष्ण ने भी इस पर बहुत बहुत जोर दिया था।

कामिनी यानी कामुक स्त्री से आप कामुकता निकाल देंगे तो वह आपको माँ जैसी लगेगी। उसी तरह अगर आप किसीभी परस्त्री कि तरफ अपनी माँ कि नजर से देखेंगे तो आप के अन्दर के विषय वासना के विष का अमृत बन सकता है,और आपको हर एक स्त्री अपनी माँ जैसी लगने लगेगी।

परस्त्री को आप माँ कि जगह कामिनी या पतित स्त्री के रूप से देखने लगोगे, तो सर्वनाश होकर रहेगा ही, इसमे कोई संदेह नही।

मन के अन्दर के विषय वासना को मिटाने के लिए कुछ विशेष प्रयास कराने होंगे, रिक्त मन विशयवासना का शिकार बन जता है, इसलिये इस मन को उच्चतम तत्वोमे ढालकर उसे हमेशा व्यस्त रखना पड़ता है। सृष्टि रचना का अभ्यास, सृष्टि विकास का शास्त्र, ब्रह्म, ब्रह्मांड और मेरा उनसे संबंध आदि उच्चतम तत्वोका अभ्यास करानेसे मन को विशयवासना के बजाय उच्चतम चिजोमे रूचि पैदा होने लगेगी। मन जिस चीज का हमेशा ध्यान या अभ्यास करता रहता है, उसमे ही उसे रूचि पैदा होती है। हम विशयवासना के बारे मे सोचना बंद करके उच्चतम विचारोंके बारे मे सोचते रहेंगे, तो हमारा विशयवासना से अपनेआप छुटकारा हो जाएगा।

विशयवासना के बारेमे हम जीतनी भी बाते करेंगे या सोचेंगे उतनेही हम उसमे फसते चले जायेंगे, इसलिये भूलकर भी इनके बारे मे सोचना और बोलना नही।

--- श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र द्वारा लिखित 'सत्यानुसरण' पर आधारित।

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