Monday, August 27, 2007

दुर्बलता

हमेशा यह याद रहे कि हम सब परमेश्वर कि संतान है। परमेश्वर कि संतान कभी दुर्बल और पापी नही होती है। परमेश्वर कि संतान हमेशा पवित्र, वीर और साहसी होती है। यह बात अगर आपकी समझ मे आयी तो आपको शीघ्र ही स्वर्ग के द्वार खुल जायेंगे। और अगर यह बात अपकी समझ मे नही आयी तो आप दुर्बल और अपवित्र बने रहोगे। और जबतक आपके विचारोमे और कृति मे यह बात नही आएगी तब तक आपके मन मे यह दुर्गंधी कि हम दुर्बल है, बनी रहेगी।

हमे निरंतर प्रयास करके हमारे मन के अन्दर कि यह छुपी हूई इस मलिनता को निकालना होगा। इस दुर्बलता को अपने अन्दर से निकालने के लिए हमे लगातार कोशिशे करनी पडेगी, चाहे इस दरम्यान हमे कुछ असफलता झेलनी पडेगी, लेकिन इस मार्ग से ना हटते हुये निरंतर आगे बढ़ते चलोगे तो मुक्ति अवश्य हासिल करके रहोगे।

दुर्बल मन हमेशा संदिग्ध रहता है, वह किसी भी चीज पर भरोसा नही कर सकता और अपना विश्वास खो बैठता है। सदैव दूःखी और रोगी रहता है। उसका सारा जीवन ही अंधःकारमय होकर रहता है। उसके सभी सुख और दूःख, अशांति मे डूबे जाते है। उसके सारे सुख और चैन, दूःख मे बदल जाते है। आलस्य मे सारा जीवन निरर्थही नष्ट हो जाता है। दुर्बल मन मे प्रेम, श्रध्दा और भक्ती का उगम नही होता है। दुसरे व्यक्ति कि करुणाजनक या विपत्तिजनक दूःखमय परिस्थिती देखकर दुर्बल व्यक्ति खुद निराश होकर और दूःखी हो जाता है और कभी कभी रो पड़ता है और प्रायः टूट जाता है।




लेकिन मानसिक रूप से बलवान या सबल ह्रदय वाला इन्सान, हर एक परिस्थितियोमे अविचल रहकर, हर एक विपत्तियों का समाधान निकालकर सबका दूःख हल कर लेता है। भगवान बुद्ध कि तरह प्यारभरे आनंदमय व्यवहार से सबका मन जित लेता है और सबकी समस्यायोंका हल ढूँढ लेता है। आप अपने आप को दुर्बल, कायर और दुराचारी मत समझो। अपने परमपिता कि ओर देखकर प्रार्थना करो कि,


'हे, परमपिता, अब मैं जान गया हूँ कि,
मैं आपकी संतान हूँ, मैं कायर या दुर्बल नही हूँ।
आपके ज्योतिर्मय स्वरूप को छोड़कर,

मैं अब अंधःकारमय नरक कि तरफ नही दौडुंगा।'



(श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र द्वारा लिखित 'सत्यानुसरण' पर आधारित)

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